रेलगाड़ी और घर के प्यार के बीच एक गहरा संबंध होता है । घर की याद बाहर रहने वाले लोगों को हमेशा ही सताती है चाहे बाहर रहने वाला व्यक्ति कितने भी मजबूत हृदय वाला क्यों ना हो । मेरी दादी से जुड़ी कुछ यादें जिनमें मेरे बचपन में जब मैं छोटा हुआ करता था तो मेरे जन्मदिन पर उनके द्वारा तिलक लगा के और आरती उतार करके जन्मदिन मनाया जाता था । उस समय इन चीज़ों की इतनी एहमियत नही पता थी । कुछ दिनों पहले मेरी डिग्री के इस अंतिम वर्ष में मुझे ख्याल आया कि क्यों ना फिर से वो बचपन की याद को दोहराया जाए । हालांकि दादी अब चारपाई तक सीमित रह गई हैं और अपनी वृद्धावस्था यापन कर रही हैं । अब बोलती नहीं हैं , खुद से उठ भी नहीं पाती । लेकिन इस अवस्था में भी उनसे तिलक लगवाने की लालसा ने मुझे घर का टिकट कराने के लिए बाध्य कर दिया । घर में बिना किसी को बताए मैंने टिकट करा लिया और घर आने को तैयार हो गया । जन्मदिन से दो दिन पहले मैं अचानक घर पहुंचा तो किसी को भी यकीन नहीं हुआ । दादी के पास बैठा और पूरे यकीन से पूछा कि - " हम के हयी माई ? " , मुझे पता था दादी नही बता पाएंगी । दादी ने कुछ ही वक्त लिया होगा और मेरा नाम सटीक तरीके से कहा - " साकेत " । मैं आश्चर्यकित था क्यूंकि की ये नाम तो इतना नहीं बोला जाता घर में । आंखें भरभरा गई और बचपन की कहानियां नजरों के सामने आने लगी । जन्मदिन बिताने के बाद , जो वक्त परिवार के साथ बिताया वो हमेशा ही अनमोल होते हैं । हम एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं , घर में हमेशा खुशनुमा माहौल में हम पले बढ़े जहां हमारी जरूरतें हमेशा पूरी की जाती थी और ख्वाहिशें हम सबकी एक ही होती थी , किसी त्योहार में सबका साथ होना , रात का खाना सबका साथ मिलकर खाना , बारिश का मज़ा एक साथ बाहर बैठ के पकौड़ी चाय के साथ लेना , सबका साथ में धार्मिक स्थलों पर जाना और शादियों में सबके अलग अलग रंग देखना । खैर ये सपने तो साल में एकाध बार ही पूरे होते थे , पढ़ाई और नौकरी ने जरूरतें बहुत पूरी की पर ख्वाहिशें कभी कभी ही । हां तो बड़े दिनों के बाद ११ को मैं और पापा बैठ गए मैच देखने , एक और पुरानी याद ताज़ा हो गई । पापा के साथ २००३ के वर्ल्ड कप से शुरू हुई क्रिकेट देखने की जो दीवानगी थी वो अब कभी कभी ही पूरी होती है । आज बारह था और मुझे घर से वापस निकलना था , मम्मी सुबह से हमेशा की तरह अचार बैग में भरने की अपनी मुहिम में आगे बढ़ रही थी ,पापा ने मुझे आवाज दी - " बेटवा , नीचे आयी जा , आज चला जाबा " , मैं नीचे आया , विचार बना की आलू की पूड़ी बनेगी । मम्मी की तबीयत ना खराब होने पे भी विचार टला नहीं और भाभी के सहयोग से पूड़ी बनने लगी । पापा कचहरी जा रहे थे , उनका पांव छु के विदा लिया । मम्मी की आलू की पूड़ी तैयार हुई और बैग में अपना स्थान ढूंढने लगी । ये कहानी जब मैं ट्रेन में बैठ के लिख रहा हूं तो दो पूड़ी खतम हो चुकी है । घर से निकलने से पहले अरहर की दाल , चावल , रोटी , सब्जी और सिरका खा के निकले थे पता है कि महीनों बाद ये भोजन वापस नसीब होगा । ये पूड़ी मेरे मम्मी के हाथों बने होने और हमेशा इसी रेल में खाए जाने का अलग ही महत्व है । ये यात्रा में घर से मिला खाना पूर्वांचल का एक रिवाज़ है , भारत की एक विरासत है , बड़ी बड़ी बेहसों में मेरी आलू की ये पूड़ी बैग में ही दबी रहती है और मेरे चेहरे पे हसी और मन ही मन घर की याद दिलाती रहती है ।
सुबह के चार बजकर पचपन मिनट हो रहे हैं , पिताजी की ४ मिस कॉल हो चुके हैं और दिल्ली की कंपकपाती ठंड की सुबह मेरे मित्र और मैं सड़क पे खड़े हो कर कैब बुक कर रहे हैं , देर ना हो जाए इसलिए पहले निकल रहे हैं स्टेशन के लिए , ६:२५ की आंध्र प्रदेश एक्सप्रेस पकड़ के विशाखापट्टनम जो जाना है पिता और मां के पास । जैसे तैसे ९८ रुपए की कैब बुक हुई और अपने मित्र को गले लगाकर विदा लेते हुए कैब में बैठे । शुरुआत में मुस्कुराते हुए मन ही मन दोस्त के साथ हुई रात २ बजे तक की बातें याद की और सोचा की दोस्त और दोस्ती कितनी खास होती है कि नींद भूलकर बस पुराने दिन याद करते हैं तभी ड्राइवर ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए कहा कि कहा से हो भाई , बातों बातों में पता चला कि देश के हर नागरिक की दिली ख्वाहिशें कितनी खास होती हैं और हर दिल क्या कहता है । पूरे २५ मिनट तक ड्राइवर मुझे देश में सारे सुधार की गुंजाइश बताई और मन ही मन ये इच्छा भी जाहिर कर दी कि वो देश का प्रधामंत्री होता तो क्या करता - बढ़िया लगा कम से कम जो काम विपक्ष के नेता नहीं कर पाते वो आम नागरिक तो बोल देता है । ...
Wonderful 👌
ReplyDeleteThat's true
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