उत्तर प्रदेश के डी.एन.ए में अगर कोई एक बात कूट कूट के भरी हुई है तो उसका नाम है राजनीति। राजनीतिक चर्चा , उत्तरप्रदेश और यूपी में रेल यात्रा ये ऐसा समीकरण है कि कोई भी महागठबंधन इसके आगे पानी पानी हो जाए। गाड़ी संख्या १४२५८ वाराणसी से चल के नई दिल्ली को जाने वाली काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस में सफर का मज़ा कुछ और है क्योंकि जितनी राजनीतिक चर्चा और भाषणबाजी इस सफर में होती है उतनी दिल्ली स्थित संसद में हो जाए तो देश सुधर जाए। हमारी कालीन नगरी भदोही के रेलवे स्टेशन में आने से पहले ट्रेन एक घंटे विलंब से आयी । बड़े भइया से विदा लेते हुए मैं और मेरे मित्र इंजिनियरिंग आखिरी वर्ष के आखिरी चरण की लड़ाई के लिए अपने रथ पे सवार हो गए। सीट संख्या ५९ और ६२ पे चढ़ गए। मालूम पड़ा हमारे नीचे आंध्र से उत्तर भारत दर्शन को चले कुछ यात्रियों का जत्था है। मैं तेलुगु भाषा से परिचित था तो उनकी बातें समझ सकता था पर बाकी लोग उन्हें मंगल ग्रह के प्राणी की तरह देखकर अपने काम में वापस लग जा रहे थे। नीचे बैठी महिलाएं हमारे यहां ट्रेंड से बाहर जा चुकी बनारसी साड़ियों का अंबार लगाई हुई थी और उसी की चर्चा में व्यस्त थी। ऐसा लग रहा था की बनारसी साड़ी के व्यापारियों को तगड़ा मुनाफा हुआ है। ब्राह्मण - क्षत्रिय की बहस से शुरू हुई राजनीति अब अपने चरम पे है। मैं और मेरे मित्र ने अपनी इच्छा से इस चर्चा को दर्शक दीर्घा में बैठ के आलू की कचौड़ियों के साथ ही मज़ा लेना सही समझा। इतिहास की गहराइयों में डूबे एक भाई प्रतापगढ़ से चढ़े चच्चा को ये समझा रहे थे कि किस प्रकार ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का कभी साथ नहीं दिया वरना ये अकेले ALEXANDER की खटिया खड़ी कर देते। इतिहास की सीख से शुरू हुई राजनीति जातिगत समीकरण तक अमेठी के पहले ही पहुंच चुकी थी। वहीं बगल में भी राहुल गांधी बनाम स्मृति ईरानी की चर्चा गहराई हुई है। यूपी के लोगों की खूबी ये है कि उनसे अच्छा बोलने वाला पूरी ट्रेन में कोई होता नहीं है और हर व्यक्ति अपने आप में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री होता है। राजनीतिक तंजों से कसी इस ट्रेन में एक बात तो साफ है, हमारे राजनीतिक योद्धाओं ने जातिगत राजनीति में जनता को ऐसा बांधा हुआ है की ये रस्सी अब चुभने से ज्यादा मज़ा देती है लेकिन सिर्फ बतियाने में। ८० सांसद देने वाला ये राज्य ५ साल में एक बार पूरे देश की राजनीति का अखाड़ा तो बन ही जाता है। बाद में ८० वाला ये राज्य उसी रस्सी बंध जाता है। खैर डिजिटल इंडिया की झलक हमारे गृह रेल स्टेशन से मिली जहां गाड़ियों के आगमन की सूचना वो भोंपू वाले सज्जन की खरकराती आवाज के बजाय वो टिंग टिंग टिंग के बाद डिजिटल महिला बोलने लगी और कोच दिखाने वाला डिजिटल बोर्ड भी कोच दिखाने लगा। कोई नहीं चुनाव आते रहेंगे जाते रहेंगे, चुनाव के इस रण में सवाल कीजिए अपने नेताओं से और जहां जरूरत हो जवाब भी दीजिए। चुनाव की गर्माहट में आपसी संबंध ना बिगाड़ें और मज़ा लेते रहिए इस राजनीतिक समर का। और यूपी की ट्रेन में सफर जरूर कीजिएगा अगली बार ।
सुबह के चार बजकर पचपन मिनट हो रहे हैं , पिताजी की ४ मिस कॉल हो चुके हैं और दिल्ली की कंपकपाती ठंड की सुबह मेरे मित्र और मैं सड़क पे खड़े हो कर कैब बुक कर रहे हैं , देर ना हो जाए इसलिए पहले निकल रहे हैं स्टेशन के लिए , ६:२५ की आंध्र प्रदेश एक्सप्रेस पकड़ के विशाखापट्टनम जो जाना है पिता और मां के पास । जैसे तैसे ९८ रुपए की कैब बुक हुई और अपने मित्र को गले लगाकर विदा लेते हुए कैब में बैठे । शुरुआत में मुस्कुराते हुए मन ही मन दोस्त के साथ हुई रात २ बजे तक की बातें याद की और सोचा की दोस्त और दोस्ती कितनी खास होती है कि नींद भूलकर बस पुराने दिन याद करते हैं तभी ड्राइवर ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए कहा कि कहा से हो भाई , बातों बातों में पता चला कि देश के हर नागरिक की दिली ख्वाहिशें कितनी खास होती हैं और हर दिल क्या कहता है । पूरे २५ मिनट तक ड्राइवर मुझे देश में सारे सुधार की गुंजाइश बताई और मन ही मन ये इच्छा भी जाहिर कर दी कि वो देश का प्रधामंत्री होता तो क्या करता - बढ़िया लगा कम से कम जो काम विपक्ष के नेता नहीं कर पाते वो आम नागरिक तो बोल देता है । ...
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